23 जुल॰ 2009

'गे' सभ्यता प्रकृति के नियम के खिलाफ

कहते हैं की हम परम्परावादी हैं .यानि भारत अपने आप में एक ऐसा देश है जिसकी संस्कृति का गुणगान दुनिया भर में गया जाता है .यहाँ पेड़ से लेकर पत्थर तक और गंगा से लेकर गाँधी तक पूजे जाते हैं तो क्या ये 'गे' सभ्यता की स्वतंत्रता को अपना पायेगा , बताना मुस्किल है कहने वाले कहते हैं की जैसे 'सती' प्रथा पर रोक लगाया गया और विधवा विवाह को अपनाया गया उसी तरह 'गे सभ्यता को भी एक दिन भारतीय समाज इज्जत भरी नज़रों से देखेगी. खैर बहस बहुत ही लम्बी चौड़ी है - पर इसके कुछ अहम् पहलु हैं जिस हम सभी खुद खुले दिमागसे सोच सकते हैं और अपने आप को अपने समाज को बता सकते हैं. सबसे महत्वपूर्ण जो सवाल है वो ये की पूरी दुनिया पहले ही 'ऐड्स' जैसी गंभीर यौन सम्बन्धी बीमारी से जूझ रही है तो क्या 'गे' का प्रचलन बढ़ने से इस बीमारी के फैलने की आशंका और नहीं बढ़ सकती . इतिहास गवाह है हमने जब -जब प्रकृति के नियमों के साथ छेड़-छाड़ किया है प्रकृति ने हमे दोगुना नुकसान पहुँचाया है , हमने पेड़ काटे हम बरसात के दिन में भी बारिश को तरसते हैं , हमने प्लास्टिक को जीने का जरिया बनाया अब प्लास्टिक हमारी जान लेने के लिए तैयार है . ऐसे कई उधारहण हमारे सामने हैं , तो क्या गे सम्बन्ध अप्राकृतिक नहीं क्या इस सभ्यता को बढावा देने वाले ये नहीं सोचते की 'गे'सभ्यता प्रकृति के अद्भुत नियम , स्त्री और पुरुष के अद्भुत सम्बन्ध जिससे दुनिया चल रही है , के सख्त खिलाफ है . खैर फैसला हम नहीं सुना रहे है ये काम हमारे समाज और न्यायालय का है हम तो सिर्फ इतना कहना चाहते हैं की ' हम इंसान हैं और हमे इंसानियत और हैवानियत में फर्क मालूम है .

1 टिप्पणी:

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

उम्दा अभिव्यक्ति . बढ़िया आलेख.