हिंदुस्तानी पर्व
अनेक विशेषताओं और परम्पराओ को अपने आप में समेटे हुए है ,बेसक पर्व– त्योंहार धर्म
में बंधे है फिर भी अपनी खूबियों से यह हिदुस्तानी समाज की परम्परा को एक धागे में
पिरोते आया है. समय –समय पर इसमें परिवर्तन भी हुआ है फीर भी अपनी मौलिक विशेषताओं
की खुशबु को सदियों से बिखेरते आया है ,बस एक हीं मंत्र है जो इस त्योहारों से मिलता
है वो है एकता का फिर चाहे वो पारिवारिक स्तर पे हो या बड़े –छोटे सामूहिक स्तर पर
...

दिवाली खत्म हुई तो
गांव (बिहार) में एक कहावत है दिवाली के छवे छठ (यानि दिवाली के ६ दिन बाद छठ होता
है ध्रुव सत्य है . छठ बिहार प्रदेश का सबसे बड़ा शुद्ध–पवित्र पर्व है, खास करके
महिलाएं इसका विशेष ख़याल रखती हैं ,जो सुरुआत हुआ करता था उसमे सबसे पहले बांस की
बनी टोकरी (छिट्टा ,कोनिया और सूप खास करके) को खरीदने से होता था , ये टोकरी भी
अपने आप में विशेष होता है , जैसा की मैंने बताया की शुद्धता और पवित्रता का
प्रतीक है छठ पर्व सो इसमें धार्मिक दृष्टिकोण से पवित्र माने जाने वाला वस्तु का
इस्तेमाल हुआ करता था और होता है ,
सामान्यतः जिसे इस टोकरी को बनाने में महारथ हांसिल है उसे ‘’डोम’’
जाती कहते हैं (बिहार में) इन्हें अछूत माना जाता था ,कुछ क्षेत्र में अभी भी ये
अछूत हीं है , मै इस चीज़ को अभी भी नहीं समझ सका हूँ कि आखिर क्यों ऐसा है क्योंकि
बांस के तीली को विभिन्न रूप और आकार देने वाला कोई कलाकार कैसे अछूत हो सकता है ,
बिखरे हुए बांस की कामच को जब ये समेटकर विभिन्न आकार देते हैं तो देखते बनता है. , इनकी कला इन्हें विरासत में मिलती है जैसे की
राजनीती और फिल्मो में होता है ...बाप से बेटे फिर क्रमशः .....
पर यहाँ एक और
अजीब सा परम्परा है जिसे अछूत मानते हैं उसी के हाथ से बनी बांस की टोकरी से सबसे
पवित्र पर्व के देवता को अर्घ्य दिया जाता है . जरा सोच कर देखिये ये क्या विधि का
विधान है ,शायद धर्म यहाँ सिखाने कि कोशिश कर रहा है सब एक सामान बल्कि वो और ऊँचा
है जिसे तुमने बेवज़ह अछूत मान बैठे हो और ये बार –बार इशारा कर रहा है की जरा देखो
तो सही मै सबसे करीब किसके हूँ लेकिन धर्म और प्यार दोनों अतीत तक अंधा होता है .
सामूहिक चेतना को जगाने में पीढ़ी खत्म हो जाती है ..शायद इन्ही सब कारणों से यह
पर्व और महान कहलाता है . खैर
टोकरी खरीद कर आता है औ उसे पानी से साफ़ कर गंगाज़ल
से पवित्र कर लिया जाता है . फीर गांव –घर की हाट की बारी आती है जहाँ खास कर छठ
को ध्यान में रखते हुए पब्लिक डिमांड पर छठ विशेष हाट लगाया जाता है और तमाम तरह
के फल, सब्जी, कंद-मूल खरीद कर लाया जाता है और इन सब सामान को आने के बाद मुख्य
कार्य ओरतों का होता है . और हाँ इस बीच गांव के बच्चों का भी एक महत्वपूर्ण कार्य
होता है छठ पूजा के लिए गांव के नदी –तलाव पे घाट का निर्माण , साफ़-सफैयत , सजाना-
सवारना जहाँ ये पवित्र पर्व मनाया जाता है .. गांव के बड़े –बुज़ुर्ग से मिलकर लाइटिंग
के लिए चंदे इकट्ठे करना और ये एक बड़ा हीं अहम कार्य है जिसे नवयुवक अपने हाथ में
स्वतः सौंपा हुआ महसूस करते हैं ....
तीन दिनों में इस पर्व का समापन होता है ....
पहला दिन घर के देवी-देवता को पूजा जाता है और फिर दुसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य
दिया जाता है और तीसरे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पर्व का समापन होता
है .... दुसरे और तीसरे दिन का पूजन सामूहिक होता है जिसमे एक मोहल्ले या एक गांव
एक जगह एकत्रित होकर मनानते है , ये भी अपने आप में अद्भूत है जिसमे किसी निश्चित
समय पर समस्त ग्रामीण एकत्रित होकर सूर्य पूजन करते है और एक दुसरे से मिलते हैं
... सूर्य को अर्घ्य पानी में खड़े होकर महिलाएं देतीं है ,करीबन 20-25 मिनट तक ठंढे
पानी में खड़ा होना फिर बारी –बारी से एक–एक छोटी टोकरी (इस टोकरी को कोनिया या सूप
कहा जाता है) को हाथ में लेकर सूर्य भगवान को अर्घ्य देना...
सामान्यतः हर घर से एक
बड़ी टोकरी होती है जिसमे कुछ ४-५ या उससे भी अधिक छोटी टोकरी होता है जिसमे तमाम
तरह के पकवान और फल ,ईख आदि से भरा हुया होता है .छोटी टोकरी कि
संख्या इस बात पे निर्भर करता है की उस घर कितने ‘’पुरुष’’ हैं जितने ‘’पुरुष’’ उतनी छोटी टोकरियाँ ...... जो महिलाएं पानी में
खड़े होकर भगवान को अर्घ्य देती हैं वो व्रतीं होतीं है ...
कुछ पुरुष भी मनोकामना
पूर्ण होने पर पानी में खड़े होते है लेकिन वो टोकरी लेकर भगवान को अर्घ्य नहीं
देते..... एक और प्रथा कई ज़गह चलती थी जो अब धीरे –धीरे खत्म हो गया वो ये की
जमींदार लोग अपना टोकरी उठा कर घाट तक नहीं जाते थे ये उनके सम्मान के खिलाफ था सो
इस कार्य को उनके यहाँ पूजा –पाठ करने वाले पंडित जी किया करते थे जिन्हें वो
कुलपूज्य भी कहा करते थे , काफी दिनों से चला आ रहा था पर बाद में जमींदारी जाने
लगी और उनको सामूहिक अकल आया की श्याद ये पाप है या फिर उनके कुलपूज्य उनसे ज्यादा
धन –सम्पति वाले हो गए सो ये प्रथा का अंत हो गया ........
आज का छठ बहुत सारे बदलाव
के रूप में हमरे सामने है. सामाजिकता से ऊपर उठते हुए राजनैतिक रंग ले चूका है
.टोकरी बाज़ार से ख़रीदे जाते हैं जहाँ ये पता करना मुश्किल है की इसे किसने
बनाया और कौन बेच रहा है .....
छठ पर्व की शुभकामना ...जय हो मंगलमय हो
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