थियेटर
हमारी संस्कृति से जुड़ा हुआ है या फिर भारतीय इतिहास में थियेटर का क्या योगदान
है और भी बहुत कुछ थियेटर से जुड़ा हुआ अतीत का चर्चा
यदि मै ( २१वी सदी ) करू तो उचित नही होगा .क्योंकि न तो मै वर्षो थिएटर से जुड़ा
हुआ हूँ और ना हीं मै किसी थिएटर से जुड़े
नामचीन हस्तियों से घंटो मुखातिब हुआ हूं तो यक़ीनन मुझे थिएटर से जुड़े इतिहास को
नहीं कुरेदना चाहिए , नहीं तो सेंसर हो जायेगा। हाँ कुछ सात (7)
साल पहले मै '' महेंद्र मलंगिया '' जी द्वारा निर्देशित नाटक ''छुतहा
घैल ''(ये मैथली नाटक है) विद्यापति समारोह पटना में देखा था ।
साल 2006 में मै पटना में हीं हुआ करता था, एक दीन की बात है बच्चों को ट्यूशन
पढ़ा कर ''बाकरगंज'' (पटना का एक बहुत ही तंग और भीर-भार वाला
इलाका जहाँ सोने-चांदी के व्यापारियों का भरमार है) से निकल रहा था , यक़ीनन महीने की दूसरी या फिर तीसरी तारीख थी क्योंकि इसी दिन मुझे
अपना मेहनताना मिला करता था। करीब 500 रूपये मिल जाया करता था, फिर मानो की मेरे मुखमंडल में पे खुसी देख कर ऐसा लगता जैसे अमिताभ बच्चन पूछ रहा हो की ''आज तो तुम खुश बहुत होगे " हांयय ...
बाकरगंज
से सटे ही पटना का एक बहुत ही फेमस सिनेमा हॉल हुया
करता है ''रीजेंट'' . नई
पिक्चर लगी थी और जेब में पैसा भी था तो हम चल पड़े सिनेमा हॉल की तरफ क्योंकि सौख बड़ी चीज़ है ,खैर इतने में सिनेमा हॉल के
बुकिंग काउंटर पर पहुँच गया जो मेरे पहुँचते ही बंद हो चूका था , हाँ बुकिंग काउंटर से कुछ दूर आगे कोई दो-तीन जन मूट्ठी भर के टिकट
बेच रहे थे यक़ीनन इर्द-गिर्द कुछ खांकी वर्दी वाले भी थे पता
नही क्यों थे . खैर टिकट मिल
रहा था ब्लैक में , पर ब्लैक से टिकट खरीदने की औकात नहीं थी .12 rs का टिकट 150 में या फिर 100 में मिल रहा था ,पता नहीं अब क्या होता है पर ब्लैक से उन दिनों इतना खींझ था की कई बार तो मन किया की साला ब्लाकीएर हीं बन जाऊं ...बच गया ...
टिकट
नहीं मिला सो निराश होकर चले घर यानि लॉज की ओर (ये साला लॉज यानि only ONE room वाला PG .भी बिहारी Student
के Life में बहुत हीं इम्पोर्टेन्ट होता है इसकी
चर्चा अगले पोस्ट में करेंगे)
अभी कुछ दस-बारह कदम चला था
गाँधी मैदान थाने की ओर तो अचानक थिएटर ''कालिदास रंगालय"दिखा (हम कुछ दोस्त इसे "कालिदास चाट्नालय" भी
कहते थे।वो इसलिए की एक दिन किसी दोस्त ने आमंत्रित किया था नाटक देखने वो जो
आमंत्रित किया था उसी नाटक में एक्ट कर रहा था। पता नहीं क्यों नाटक इतना उबाऊ था या फिर हमलोगों के समझ से बहार
था ,जो भी था थिएटर से निकलने के बाद पुरे चटवाया हुआ
महशुस हो रहा था उसी वक़्त हमने उसका नाम बदल कर ''कालिदास चाटनालय'' रख दिया था) एक 4/10 का
पोस्टर कालिदास रंगालय के फ्रंट गेट पर लगा हुआ था और कुछ पिक्चर के साथ नाटक का
टाइटल ''सवा शेर गेंहू'' लिखा हुआ था। अचानक मुझे
क्या हुआ पता नहीं, काउन्टर पे गया टिकेट ख़रीदा और घुस गया थिएटर हाल
में। अगल-बगल बैठे लोग श्याद थिएटर से लगाव रखते ,इसलिए बहुत ही सलीके से देख रहे थे ,मेरा भी मन रम गया था खूब
तालियाँ बजी मै खूब ताली बजाय ''सवा शेर गेंहू'' में।
यही पहला
मेरा थिएटर देखने के प्रति झुकाव था ,सोचता हूँ यदि उस दिन
सिनेमा हॉल में ब्लाकीएर नही होता तो श्याद मै कभी भी थिएटर के प्रति इतना रूचि नही रख पाता जितना आज है .
अब चलते है जहाँ से मुझे पटना याद आया था वहां - महेंद्र मलंगिया रचित नाटक ''छुतहा घैल '' एक मैथली ,हिंदी मिक्स नाटक है जिसमे बिहार के ग्रामीण
इलाकों में जैसे हिंदी और मैथली को मिला- जुला कर बोला जाता है, जो की बहुत अजीब और ठहाके
लगाने लायक होता है। ( नमूना आप मेरे पिछले पोस्ट में देख सकते हैं ) ''छुतहा घैल '' नाटक का प्रस्तुति बहुत बेहतरीन था . जितना मै
जनता हूं महेंद्र मलंगिया एक बेहतरीन और चर्चित नेपाली ,मैथली नाटक राइटर और डायरेक्टर हैं .
ये तो
बात थी पटना की जहाँ मैंने कुछ 4 -5
के करीब नाटक देखा ,फिलहाल दिल्ली में हु
और करीबन 30-35 नाटक देखा है
|
इन 30 - 35 प्ले के दौरान उस दर्द को मैंने जो
समझा है वो कुछ इस प्रकार है -
सबसे
पहले तो स्पोंसर ढूँढना माने नाकों चने चबाना जैसा होता है , फिर दर्शक जुटाना भी बीरबल के खिचड़ी पकने जैसा है , चलिए स्पोंसर कुछ फंडिंग कर भी दिया तो दर्शक में १ चौथाई वर्ग -उसकी
सिफारिश ,इसकी शिफारिस यानि मुफ्त के पासेज के चक्कर में
रहते है क्योंकि पैसे लगाना वो भी थिएटर देखने में घोर अन्याय है ...हाँ सोनपुर के
मेले वाले थेटर हो तो कुछ बात ही और है फिर तो जेब लुटा देंगे। डायरेक्टर
किस कदर जीता है अपने हर प्ले के दौरान कभी फुर्सत मिले तो किसी डायरेक्टर से
पूछियेगा,तिल- तिल मरता है जबतक प्ले ख़त्म ना हो जाए।
करीब एक
महीने पहले मै राकेश बेदी और खुद राकेश बेदी द्वारा प्रस्तुत Mono play (single actor drama) - मसाज (MASSAGE-A two act play in which RAKESH BEDI portrays several characters ) देखा दो घंटे का प्ले कुछ ऐसा था - एक नौजवान
बॉलीवुड में काम करने की इच्छा लिए मुंबई
जाता है बहुत जल्द उसे फिल्म में काम भी मिल जाता है मगर
दर्ज़ा चौथे असिस्टंट डायरेक्टर का होता है, फिर वो किस तरह डायरेक्टर
के बीवी को अचानक मसाज़ करता है और मसाज़ वाले के नाम से मसहुर हो जाता है , और बहुत कुछ उतार -चढ़ाव जिन्दगी के फलसफे से जूझते हुए आगे बढ़ता
है। इसी का बहुत ही मजेदार नया नाटकिय प्रस्तुति है।
राकेश बेदी -मसाज के एक दृश्य म |
प्ले खत्म हुआ पैकअप टाइम में राकेश जी कुछ प्रिंट JOURNALIST से मुखातिब हुए और सिलसिला चल पड़ा बातो का - कुछ इस प्रकार है
|
थिएटर के
प्रति मीडिया की उदासीनता से काफी खफा लग रहे थे , आखिर क्यों नहीं मीडिया
इसका चर्चा होता है , देश की राजधानी दिल्ली में आये दिन इतने सारे
थिएटर होते है पर कुछ दो-चार छोटे कोने को छोड़ दे तो कहीं भी कुछ नहीं लिखा जाता
है और नाहीं दिखाया जाता है ,
ELECTRONIC मीडिया यानि टीवी वालों को
तो तौबा है थिएटर नाम के शब्द से , इतना ही नहीं ADVERTISEMENT भी इतना महंगा है पर की यदि स्पोंसर ढंग का ना हो
तो दस दफा सोचना पड़ता है कि कैसे लोगों तक इसकी जानकारी पहुँचाया जाय .
चलके
किसी बड़े -नामचीन कलाकार से पूछ लीजिये या फिर खुद को टटोलिये की ''असली एक्टिं कहाँ परखी जाती है जवाब में थिएटर का नाम ही आएगा, जहा दर्शक से कलाकार रूबरू होते होते है फीडबैक सामने से पल -पल का आ
रहा होता है और जब तालियों की बौछार होती है तो कलाकारों का सीना -महा बली ''खली'' से भी चौड़ा हो जाता है .
तब से
सोच रहा हूँ क्या वाकई थिएटर का हश्र ऐसा होना चाहिए ? जहाँ एक्टिंग का असली इम्तेहान होता है। याद नहीं
की कब कोई टीवी पत्रकार - नसरुद्दीन शाह ,शबाना आज़मी, अनुपम खेर ,किरण खेर ,मोहन आगाशे , डॉली अहलुवालिया आदि सरीखे
नामी बॉलीवुड और थिएटर एक्टर /एक्ट्रेस से पूछा होगा की आप अगले कौन से थिएटर में
काम करने वाले हैं। याद नहीं।
मै थिएटर
के इस हालत के प्रति ऊपर दर्शाए सारे कलाकार और सभी जो यहाँ से निकल कर 70 mm पर खूब नाम और शोहरत हाशिल किये हैं उनको भी उतना हीं जिम्मेदार
मानता हु जितना थिएटर के प्रति मीडिया के उदासीनता को मानता हुं।
2 टिप्पणियां:
थियेटर महाराष्ट्र में जितना लोकप्रिय है उतना भारत के किसी अन्य राज्य में नहीं.
थियेटर और सिनेमा में बहुत फर्क है ..उनके दर्शक भी अलग हैं.थियेटर की गिरती हुई वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार मीडिया भी है और साथ ही लोगों की बदलती रूचि भी.
अच्छा लेख .
Thank you Alpna ji...
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